नगाधिराज हिमालय से ले कर कन्याकुमारी तक विस्तृत देवभूमि भारत के विशाल
और विमल वक्ष स्थल पर सृष्टि के उषाकाल से ही अनेक महापुरूषों और तपसाधकों
ने अवतरण ले कर शस्य शयामला के गुण्-गौरव में अभिवृद्वि की है। आज से करीब 58 वर्ष पूर्व एसे ही एक दिव्य नक्षत्र ने इस भूमि पर अवतरण लिया जो आज
अपने ज्ञानालोक से ना केवल भटके हुए मानवों को राह दिखा रहा है, वरन् अनेक
कुरितियों और विकृतियों के जाल में उलझे समाज में जागृति व चेतना का शंखनाद
भी फूंक रहा है। वह प्रज्ञा पुरूष है, अन्तर्राष्ट्रीय रामस्नेही
सम्प्रदाय के 14 वें प्रधान आचार्य महाप्रभु स्वामी रामदयाल जी महाराज ।
युगदृष्टा स्व. रामचरण जी महाराज ने जिस साहस,कल्प,आत्मशाकित के साथ
आत्मोत्थान के शिखर पर अपने चरण चिन्ह अंकित किये, ठीक उन्ही के पदों का
अनुसरण करते हुए आचार्य महाप्रभु स्वामी रामदयाल जी महाराज भी साधना के
क्षैत्र में गतिशील है। कौन जानता था कि मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर में
भवानी राम के आंगन में माता रामकुंवर बाई की कुक्षि से 26 सितम्बर 1956 को
जन्म लेने वाला यह बालक अपनी प्रखर मेधा व अलौककि ज्ञान बल से रामस्नेही
संप्रदाय के आचार्य पद को सुशोभित करेगा।
जन्म के समय से ही माता- पिता द्वारा घूंटी के साथ दिये गये संस्कारों के
द्वारा बालमन पर वह प्रभाव डाला कि शुरू से ही साधु सन्तों की संगत में
आनन्द की अनुभ्ति होने लगी।खाने पीने और शरारत करने की उम्र में ही आप
आध्यात्मिकता के रंग में रंगने लगे। जीवन की भंगुरता और नश्वरता की जैसे
आपको पहचान हो गई। घर परिवार रिश्ते- नाते बेनामी और झूठे मानकर आप मात्र
12 वर्ष की अल्पवय में घर-बार छोड़कर जीवन के शाश्वत आनन्द की खोज में निकल
पड़े। यहीं से वैराग्य का बीज इनके मन में अंकुरित होने लगा। अपनी जन्म
भुमि इन्दौर को छोड़कर थोड़े दिन-उधर विचरने के बाद आप चित्तौड़ की धरा पर
पधारे जहाँ आपका सम्पर्क संम्प्रदाय के तपस्वी व यशास्वी सन्त श्री भगतराम
जी महाराज से हुआ। यहीं से प्रारम्भ होती है आपकी शिखर यात्रा, जिसमें आप
ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। संत श्री भगतराम ने फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी
संवत 2028 के दिन आपको अपना शिष्य घोषित किया। वैराग्य अंगीकार करने के
बाद आपका अधिकांश समय जप तप , राम नाम- सुमिरन स्वाघ्याय में व्यतीत होने
लगा। ध्यान एवं संयम व तप के अभ्यास सहिष्णुता ,निष्ठा एकाग्रता, कर्मठता व
अनुशासन जैसे अनेक गुण आपके स्वभाव का बड़े सहज रूप में अभिन्न अंग बनते
चले गये। जिनके बलबूते पर आपका व्यक्तित्व इतना विराट होता चला गया कि
मात्र 37 वर्ष की उम्र में ही आप संप्रदाय के आचार्य पद पर विराजमान हुए।
आचार्य प्रवर एक कुशल संगठक तो है ही, साथ ही आप में समय की नब्ज को पहचान
कर तदनुरूप निर्णय लेने की विलक्षण क्षमता भी है। यही कारण है कि रामस्नेही
संप्रदाय को ना केवल पूरे देश ही अपितु संपूर्ण विश्व में व्यापक पैमाने
पर मान्यता मिली है। एक जानकारी के अनुसार रामस्नेही संप्रदाय के इस समय
देश में लगभग 550 संत है। और अनुयायियों की संख्यां करोड़ों में है। आचार्य
प्रवर क्रांतिकारी विचारों के धनी है।
आपकी प्रवचन शैली सहज, सरल, और अन्तर्मन को आसानी से छूने वाली है जिसमें
एक ओर जहां जीवन की वास्तवकिता का दिव्य दशर्न होता है वहीं दूसरी ओर
रूढियों, अंध विश्वासों और सामाजिक विकृतियों के खिलाफ सिँह गर्जना भी
सुनाई पड़ती है। यही कारण है कि आप केवल एक परम्परा के प्रतिनिधि संत के
रूप में नहीं बल्कि राष्ट्रीय कांतिकारी, तारनहार एवं करूणानिधि के रूप में
उभरकर लोकप्रिय हुए है ।
देश
की मूल संस्कृत भाषा के साथ लगातार हो रहे सौतेले व्यवहार ने भी आपको काफी
आहत किया है आप द्वारा संस्कृत विद्यालय की स्थापना करने के पीछे भी मूलत:
यही भावना रही है।कि आने वाली पीढी इस भाषा को फिर से अपने प्राचीन
गौरवशाली स्थान दिलाने के लिये एकजुट होकर प्रयास कर सके। पाश्चात्य
संस्कृति और सभ्यता की अंधानुकरण प्रवृत्ति के चलते देश में जिस प्रकार का
वैचारिक प्रदूषण फैल रहा है, आचार्य श्री का मन इससे अत्यधिक व्यथित है।
इसलिये पूरे देश में भ्रमण कर लोगों को स्वाभिमान और स्वावलम्बन के साथ
जीने की प्रेरणा देते है। आपकी प्रेरणा का ही परीणाम है कि अनेक स्थानों पर
युवाओं ने दुर्व्यसनों से बचने का संकल्प लिया है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति
नहीं होगी कि भौतिक तृष्णाओं की इच्छापूर्ति के इस अंधे दौर में आचार्य
प्रवर संयम साधना में स्थिरप्रज्ञ बनकर जिस प्रभावोत्पादकता से धार्मिक
संस्कारों का निर्माण कर रहे है, वह अनुकरणीय है।
पिछले दिनों प्रयाग में आयोजित कुंभ के मेले में आपको “जगदगुरू” की उपाधि
से अलंकृत किया गया । आपके द्वारा भीलवाड़ा में विशाल श्री रामस्नेही
चिकित्सालय का भी निर्माण कराया गया है।
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