- : मन उपदेश : -
सन्तदास मन विकल है, अटक न माने काय ॥
बुरा भला देखे नहीं, जहाँ तहाँ चल जाय ॥१॥
बपड़ा तन को सन्तदास, फिरे उड़ाया मन्न ॥
बुरा भला देखे नहीं, जहाँ तहाँ चल जाय ॥१॥
बपड़ा तन को सन्तदास, फिरे उड़ाया मन्न ॥
जो या मन को बस करे, सो कोइ साधु जन्न ॥२॥
मन हस्ती महमन्त है, बहता है मंदमंत ॥
अंकुश दे गुरु शब्द का, फेरत है कोइ संत ॥३॥
मन चंचल था सन्तदास, मिलिया निश्चल माहिं ॥
मन हस्ती महमन्त है, बहता है मंदमंत ॥
अंकुश दे गुरु शब्द का, फेरत है कोइ संत ॥३॥
मन चंचल था सन्तदास, मिलिया निश्चल माहिं ॥
चंचल से निश्चल भया, अब कहूँ चलता नाहिं ॥४॥
कोइ कोटि साधन करो, ल्यो काशी में तेग ॥
राम भजन बिन सन्तदास, मिटे न मनका वेग ॥५॥
तन कूँ धोया क्या हुआ, जो मन कूँ धोया नाहिं ॥
तन कूँ धोया बाहरा, मैल रह्या मन माहिं ॥६॥
मन की लहरया सन्तदास, ताकी लार न जाय ॥
सतगुरु का उपदेश सूँ , ता बिच रहे समाय ॥७॥
अगल बगल कूं सन्तदास, भटकत है बेकाम ॥
मिलिया चाहो मुक्तिकूँ, तो निशिदिन कहिये राम ॥८॥
क्या होता है सन्तदास, बहुता किया उपाय ॥
राम नाम सूं मन मिले, जीव बुद्धि तब जाय ॥९॥
मन लागा रहे रामसूं , तो भावै जहाँ रहो तन्न ॥
ऐसी रहणी सन्तदास, रहता है कोइ जन्न ॥१०॥
राम नाम कूँ छाँड के, पढ़ि है वेद पुराण ॥
जिना न पाया सन्तदास, निर्भय पद निर्वाण ॥११॥
गरक रहो गुरु ज्ञान में, राम नाम रस पीव ॥
फिर न कहावे सन्तदास, चौरासी का जीव ॥१२॥
राम राम सा
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