स्वामीजी श्री रामचरणजी महाराज का जीवन परिचय |
अवतरणअन्तर्राश्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय षाहपुरा (भीलवाड़ा) पीठ के प्रवर्Ÿाक स्वामी श्री रामचरणजी महाराज का जन्म षनिवार, 24.फरवरी, सन् 172र्0 ईं (विक्रम संवत् 1776, माघ मास, चैदस-षुक्ल पक्ष) के दिन अपने ननिहाल-सोड़ा (षूरसेन) ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री बख्तराम (भगतराम) एवं माता का नाम श्रीमती देऊजी (देवहूति) था। इनका मूल ग्राम बनवाड़ा, जाति विजयवर्गीय एवं गोत्र कापड़ी था। पुत्र जन्म की प्रसन्नता में बनवाड़ा में सूचना मिलते ही गाजे-बाजे बजे एवं समस्त ग्राम में नारियल बंटवाए गये। दूसरे दिन परिवार वालों को भोजन कराया गया। ज्योतिशी से जन्म पत्रिका बनवाई गई। तब उसने बताया कि इस बालक की जन्म कुण्डली में भारी ग्रह पड़े हुए है, ऐसा पुत्र तो न छत्रपति के घर हुआ है और न होगा। नामकरण संस्कार के दिन आपका नाम रामकिषन घोशित हुआ।षैषवश्री रामकिषन का रूप सूर्य की आभा के समान दैदीप्यमान था। वे गौर वर्ण के थे तथा उनके नयन कमल के सदृष थे। लम्बे हाथ का व्यक्तित्व अत्यन्त मोहक था। छोटी अवस्था में ही बड़ों के समान सद्विवेक प्राप्त था। बाल्यकाल में ही कुषाग्र बुद्धि एवं सर्वगुणसम्पन्नता ने इन्हें सबका प्रिय बना दिया।गृहस्थ जीवनश्री रामकिषनजी का विवाह चांदसेन ग्राम निवासी श्री गिरधारी लाल विजयवर्गीय (खूटेंटा) की सुपुत्री गुलाब कॅुवर बाई के साथ हुआ। जनश्रुति के अनुसार इनके एक पुत्र और एक कन्या हुई। कुछ लोग कहते हैं कि एक पुत्री ही हुई।जीविकोपार्जनषिक्षा के बाद इन्होनें जयपुर राज्य में सेवा की। अपनी कर्तव्यनिश्ठा, कार्य कुषलता, न्याय परायणता एवं ईमानदारी के कारण ये निरन्तर पदोन्नत होते गए और दीवान पद तक पहुंच गए।जीवन परिवर्तन की दो घटनाएं(1) एक बार श्री रामकिषनजी अपने ससुराल चांदसेन गए। भोजन करने के बाद वे दुकान में लेटे हुए थे तभी एक यति उस मार्ग से निकला, उसकी दृश्टि इनके पदतल की रेखा पर पड़ गई। देखकर वह यति वहां उपस्थित व्यक्तियों से बोला - ष्इनके चरण में उध्र्व रेखा है, मुझे आष्चर्य हो रहा है कि ये यहां कैसे लेटे हुए हैं! ज्योतिश के अनुसार तो इन्हे राजा होना चाहिए या दृढ़ वैराग्यवान योगीष्।(2) यति तो अपनी बात कहकर चला गया। नींद खुली तब वहां उपस्थित लोगों ने श्री रामकिषन जी को यति के कथन से परिचित करा दिया। उसी रात को श्री रामकिषनजी को एक स्वप्न आया। स्वप्न में वे सरिता में स्नान करते समय तेज धार की चपेट में आ गए और बहने लगे। बचकर निकलने के उनके सारे प्रयास विफल हो गए। मृत्यु का भय सताने लगा। कुछ ही समय पष्चात् एक षुभ्र वेषधारी साधु दौड़ता हुआ आया और उसने इन्हें बांह पकड़कर बाहर निकाला। उसी समय निद्रा टूटी और स्वप्न भंग हो गया। नींद भंग होने के साथ ही श्री रामकिषनजी की मोह निद्रा भी हटने लगी। आत्म चिन्तन प्रारम्भ हुआ। स्वप्न के संबंध में विचार करने लगे। यह नदी क्या है ? डूबने वाला कौन है? बचाने वाला कौन है ? आत्म बोध हुआ ‘‘मैं (जीव) मोह रूपी नदी में डूब रहा हूॅ तब सद्गुरू ने आकर बचाया। इसी चिन्तन में वैराग्य जगा तथा सांसारिक मोह बंधन को तोड़कर स्वयं मुक्ति हेतु घर-बार छोड़कर सद्गुरू की खोज में निकल पड़े। षाहपुरा पहुंचने पर स्वप्न की छवि वाले सन्त के बारे में संकेत मिला की ऐसे सन्त दांतड़ा ग्राम में विराजते हैं। यह सुनकर वे अत्यन्त हर्शित हुए और प्रभात होते ही दांतड़ा ग्राम के लिए चल पड़े। उस समय उनकी आयु 31 वर्श व 7 मास की थी। स्वामी श्री कृपाराम जी से भेंटदांतड़ा पहुंच कर सन्त दासोत सम्प्रदाय के महन्त श्री कृपारामजी के दर्षन कर अत्यन्त उल्लसित हुए। स्वप्न में जिस सन्त ने उन्हें बचाया था वहीं साक्षात् मूर्ति उनके सामने थी। भाव विभोर होकर षीष नवाया, प्रणाम किया, प्रसाद चढ़ाया और प्रदक्षिणा की।दीक्षाएक पक्ष (पखवाड़े) तक विभिन्न प्रकार के प्रष्नोत्तर से परीक्षा लेकर स्वामी श्री कृपारामजी ने श्री रामचरण जी महाराज को सुपात्र समझ कर विक्रम संवत् 1808 की भाद्रपद षुक्ला सप्तमी, गुरूवार के दिन श्री रामकिषनजी को दीक्षा दी। ष्रामष् मंत्र एवं ष्रामचरणष् नाम प्रदान कर इन्हें अपना षिश्यत्व प्रदान किया।गूदड़ वेष धारणअपने गुरू श्री कृपारामजी से दीक्षा प्राप्त कर स्वामी श्री रामचरण जी ने गुरू के सम्प्रदाय का गूदड़ वेष धारण कर लिया। भजन एवं स्मरण साधना में उनका समय व्यतीत होने लगा। कुछ समय बाद आप अपने गुरू के निर्देष पर अपने गुरू भाई की सेवा में बहादुरगढ़ गये।वहां एक दिन आप भोजन बना रहे थे, सावधानी रखते हुए भी एक पीपल के वृक्ष की सूखी लकड़ी आपके द्वारा चूल्हे में लगा दी गई जिसमें चीटियां थी। अग्नि के ताप से परेषान होकर चींटियां उस लकड़ी के छेद में से बाहर निकलने लगी। यह देखकर इनका मन उद्विग्र हो उठा। वे आत्मग्लानि अनुभव करने लगे। तत्काल रसोई बनाने का कार्य छोड़कर बाहर निकल गए। गुरू भाई ने इन्हें गुरूजी के पास लौटने के लिए निर्देषित किया। लौटते समय राह में एक वृद्ध रसायनी ने इन्हें तांबे से सोना बनाने कीे विधि सिखाने का प्रस्ताव रखा जिससे पुण्य कमा सके किन्तु इन्होनें तो स्पश्ट जवाब दे दिया हमने तो राम रसायन प्राप्त कर ली है अतः आप की यह विद्या मुझे नहीं चाहिए। दांतड़ा पहुंचकर आपने गुरू महाराज को बहादुरपुर की सारी घटना सुना दी। श्री कृपारामजी ने तब से इन्हें भोजन बनाने की सेवा से मुक्त कर दिया। अब तक स्वामी श्री रामचरण जी को गूदड़ वेष में साधना करते हुए लगभग सात वर्श की अवधि व्यतीत हो चुकी थी। किन्तु गुरू के आदेष से उनके साथ गलता मेले में चलने के सुझाव को स्वीकार कर लिया। इस यात्रा में चूरे ग्राम पहुंचने पर भोजन की व्यवस्था के सम्बन्ध में साधु मण्डली में परस्पर मतभेद और त.ूतू मैं.मैं होते हुए इन्होनें देखा तो बड़े दुःखी हुए एवं गुरूजी से निवेदन किया कि क्या यहीं मुक्ति का मार्ग हैं ? स्वामी श्री कृपाराम जी ने अपने षिश्य के उद्वेलित चिŸा के वेग को समझ कर इन्हें प्रवृŸिा मार्ग को छोड़कर निवृŸिा मार्ग अपनाने का सुझाव बताया। गलता मेले के बाद श्री राम चरण जी वृन्दावन की ओर जाने लगे, राह में उन्हें एक साधु ने पूछा-रामस्नेही तुम कहा चलिया ? इन्होनें उत्तर दिया - वृन्दावन। तब उसने सुझाव दिया, तुम निवृŸिा मार्ग के अनुयायी हो वहां तो प्रवृŸिा ढ़ाठ है तुम्हारा मन नहीं लगेगा। वहां से लौटकर गुरू से आज्ञा प्राप्त कर चाकसू ग्राम चले गये। वहां वर्शा में भीगने से तालाब के किनारे भजन करते हुए कांपने की अवस्था में देखकर श्री उपमीचंद जी ने इन्हें हिरमची रंग की चादर भेंट में दी। तब से रामस्नेही सम्प्रदाय में हिरमची व गुलाबी रंग प्रचलन में हो गया। भीलवाड़ा की ओरविक्रम संवत् 1817 में भीलवाड़ा पहुंचकर नगर के पष्चिम की ओर स्थित मयाचन्द जी की बावड़ी में आसन जमाया। यहां तक आप अकेले विराजते थे, तब तक कोई भी जिज्ञासु या षिश्य आपके साथ नहीं था। स्वामी श्री रामचरणजी भीलवाड़ा में निर्गुण भक्ति के प्रचार के लिए आए थे। प्रारम्भ में साधनारत स्वामीजी ने मौनव्रत धारण किया था। उनसे सर्वप्रथम भेंट करने वाले श्री देवकरणजी थे। परस्पर प्रष्नोŸार हुआ। उनकी जिज्ञासा षान्त हुई। श्री देवकरणजी ने श्री नवलरामजी से, फिर श्री नवलरामजी ने श्री कुषलरामजी से स्वामीजी के साधुता की एवं सिद्धान्तों की प्रषंसा की । दूसरे दिन तीनों एक साथ स्वामीजी के दर्षनार्थ आए। षनैः षनःै सम्पूर्ण भीलवाड़ा में इनकी ख्याति फैल गई। नगर सेठ भी इनके दर्षनार्थ आया एवं इन्हें देखकर प्रफुल्लित हुआ। उŸाम ज्ञान चर्चा होने लगी। जिज्ञासुओं की संख्या बढ़ी । यहीं पर इन्होंने विक्रम संवत 1817 में रामस्नेही सम्प्रदाय की स्थापना की। रामस्नेही का अर्थ है राम से स्नेह करने वाले - राम से प्रेम करने वाले।श्री देवकरण, श्री कुषलराम एवं श्री नवलराम तीनों अपनी धुन के पक्के थे। ये स्वामीजी के यषस्वी षिश्य हुए । उस समय श्री कुषलरामजी की उम्र मात्र तीस वर्श, श्री देवकरणजी की पच्चीस वर्श एवं श्री नवलरामजी की इक्कीस वर्श थी। श्री कुषलरामजी के एक पुत्र एवं एक पुत्री, श्री देवकरणजी के एक पुत्र तथा श्री नवलरामजी की पत्नी गर्भवती थी। फिर भी इन तीनों ने एक साथ षीलव्रत धारण कर गुरू उपदेष की दृढ़निश्ठा का परिचय दिया। वाणी रचनागुरू से प्राप्त ‘राम’ मंत्र की साधना करके स्वामी श्री रामचरणजी ने राम स्मरण का अभ्यास बढ़ाया। कंठ, हृदय, नाभि कमल से षब्द को शट्चक्रों का भेदन करते हुए गगन मण्डल, सहस्त्रार तक पहुंचाने की योग साधना (सुरति षब्द योग मिलाने) में सफल हुए। बारह वर्श तक निरन्तर साधनारत होकर मदोन्मत की भांति उपदेष देने लगे। स्वः अनुभूति का खजाना अनुभव वाणी (अणभै वाणी) के षब्दों के रूप में खुलने लगा। कहते है जैसे नदीं में लहरें उठती है, वैसे ही महाराज भजन वेग से षब्द फरमाने लगे। विक्रम संवत् 1820 से 1827 के बीच में सम्पूर्ण अनुभव वाणी का अंगबद्ध रूप में हस्तलिखित संपादन सम्पन्न हुआ। ज्ञान, भक्ति, वैराग्य की त्रिवेणी प्रवाहित की तथा सत्य, अहिंसा, भक्ति, टेक के सिद्धान्तों का समन्वित रूप प्रकट किया। इसी अवधि में बारह बीघा भूमि में रामद्वारे की स्थापना भीलवाड़ा में हुई एवं फूलडोल उत्सव प्रारम्भ हुआ।वाणी रचनाविरोध की अनुगूॅंज . व्यसन विकारों, समाजिक रूढि़यों एवं धार्मिक अंधविष्वासों एवं पाखंडो के विरूद्ध स्वामीजी ने उपदेष दिए तथा भक्ति का प्रचार किया। जिनके स्वार्थों पर चोट पहुंची ऐसे द्विज परिवारों ने उदयपुर जाकर महाराणा को स्वामी श्री रामचरणजी के विरूद्ध षिकायत कर दी। बिना विचारे राजा ने एक कर्मचारी के द्वारा यह आदेष भिजवा दिया - ‘आपका प्रचार बन्द करो या बाहर चले जाओ’।कुहाड़ा प्रस्थानमहाराणा के दूत का संदेष पाते ही स्वामीजी भीलवाड़ा नगर को छोड़कर कुहाड़ा ग्राम में चले आए। कुहाड़ा भीलवाड़ा नगर से चार कि.मी. दूर था। वहां कोठारी नदी के तट पर वट वृक्ष के नीचे आपने आसन जमाया। यहां साधना निर्विघ्न चलने लगी।कुहाड़ा प्रस्थानमहाराणा के दूत का संदेष पाते ही स्वामीजी भीलवाड़ा नगर को छोड़कर कुहाड़ा ग्राम में चले आए। कुहाड़ा भीलवाड़ा नगर से चार कि.मी. दूर था। वहां कोठारी नदी के तट पर वट वृक्ष के नीचे आपने आसन जमाया। यहां साधना निर्विघ्न चलने लगी।फूलडोलभीलवाड़ा के समान षाहपुरा में भी फूलडोल उत्सव प्रारम्भ हुआ। स्वामी रामचरण जी की छतरी मे ही इसका आयोजन होने लगा। चारों ओर देष-देषान्तर से रामस्नेही साधु, भक्तजन एवं जिज्ञासु जन फूलडोल के अवसर पर षाहपुरा आने लगे। प्रारम्भ में यह फूलडोल मात्र मात्र एक दिन का था। स्वामीजी के निर्वाण के बाद यह चालीस दिन का हो गया। वर्तमान में यह पच्चीस दिन का एवं प्रमुख रूप से चैत्र षुक्ल एकम् से पॅचमी तक का हो गया है। उसमंें भी पॅचमी का दिन नवदीक्षितों की षोभायात्रा, आर्चाय श्री के चातुर्मास के निर्णय, सन्तों के प्रवचन एवं जिनकी मनौतियाॅं पूर्ण हुई है उनके द्वारा मिश्री-पताषे का प्रसाद वितरण होते देखकर अपार भीड़ आनन्द एवं उल्लास का अनुभव करती है। होली एवं पंचमी के दिन नगर में स्थित राममेड़ी पर जागरण होने लगा।अनुभव वाणीस्वामी श्री रामचरणजी ने विक्रम संवत् 1820-27 में भीलवाड़ा एवॅ षाहपुरा में अनुभव वाणी का उच्चारण किया था, उनको बत्तीस अक्षरों के ष्लोकों में गणना करें तो 36,397 ष्लोक बैठते हैं । इस वाणी के प्रारम्भ के आठ हजार ष्लोकों का संग्रह, संपादन एवं लेखन माहेष्वरी वंषोद्भव स्वामीजी के परम षिश्य भीलवाड़ा निवासी षीलव्रती श्री नवलरामजी ने किया । षेश अठ्ठाईस हजार तीन सौ दस ष्लोक संख्या परिमाण का लेखन, संकलन, संपादन स्वामी जी के षिश्य श्री रामजनजी महाराज ने लिपिबद्ध कर अंगबध्द किया। वर्तमान में अनुभव वाणी ग्रन्थ सन् 1925 ईं (विक्रम संवत् 1981) में 1000 पृश्ठों की छपी हुई मिलती थी, उसका नवीन संस्करण का प्रकाषन सन् 2005 ईं में हुआ।निर्वाण में भी अद्भुत संयोगस्वामी श्री रामचरण जी महाराज के निर्वाण (गुरूवार.5 अप्रेल, सन् 1798 ईं) में भी गुरू षिश्य परम्परा में भी एक चमत्कारपूर्ण दृश्टान्त प्रस्तुत हुआ है। षिश्य अपने गुरू से तिथी एवं वार में भी आगे रहे है
अठ्ठारह सौ शट् वर्श मास फागुण बदी साते।
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Wednesday, 27 August 2014
स्वामीजी श्री रामचरणजी महाराज का जीवन परिचय
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